नमस्कार प्रिय पाठकों,
Yatrafiber के आज के ब्लॉग में मैं आपको राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक आवरी माताजी के मंदिर के बारे में बताने जा रही हूँ। आवरी माताजी मंदिर राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले की भदेसर तहसील में असावरा गाँव में स्थित है। चित्तौड़गढ़ से इसकी दूरी लगभग 40 किमी है, जबकि उदयपुर से यह लगभग 90 किमी दूर स्थित है। निजी वाहनों के अतिरिक्त सार्वजनिक परिवहन यानि बसों के द्वारा भी यहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है।
यह मंदिर काफी पुराना है। मंदिर के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि यहाँ की जागीरदारी आवाजी राठौड़ के पास थी। आवाजी के सात पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्री का नाम केसर कुँवर था। पुत्री की आयु विवाह योग्य होने पर आवाजी ने अपने सातों पुत्रों को अलग-अलग स्थानों पर उनकी बहिन के लिए उचित वर ढ़ूँढ़ने हेतु भेजा। सातों भाई सात अलग-अलग स्थानों पर बहिन का रिश्ता तय कर आए। इस समस्या का हल निकालने के लिए केसर कुँवर ने अपनी कुलदेवी का ध्यान लगाया। तब कुलदेवी के आशीर्वाद से धरती फटी तथा केसर कुँवर उसमें समाने लगी। पुत्री को धरती में समाते देख आवाजी से रहा नहीं गया तथा उन्होंने दौड़कर उसका पल्लू पकड़ लिया। पल्लू पकड़े जाने पर केसर कुँवर नाराज हो गईं तथा उन्होंने आवाजी को श्राप दे दिया। श्राप से मुक्ति पाने के लिए आवाजी ने अपनी पुत्री केसर कुँवर यानि आवरी माताजी के मंदिर का निर्माण करवाया। कहा जाता है कि मंदिर का गर्भगृह ठीक उसी स्थान पर बनवाया गया है, जहाँ पर केसर कुँवर धरती में समा गई थीं।
असावरा गाँव में स्थित होने के कारण इसे असावरा माताजी के नाम से भी जाना जाता है। मुख्य सड़क पर बड़ा प्रवेश-द्वार बना हुआ है। यहाँ से मंदिर तक जाने के रास्ते पर दोनों तरफ प्रसाद, फूल-माला, पूजन सामग्री, खिलौने व अन्य सामग्री की छोटी-छोटी दुकानें हैं, जोकि आस-पास के ग्रामीणों के लिए रोजगार का साधन हैं। मंदिर के ठीक बाहर नल लगे हुए हैं जहाँ मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व हाथ-पैर धोए जा सकते हैं।
ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर देवी का चमत्कारी रूप स्थापित है। यहाँ आने वाले लोगों की शारीरिक व्याधियाँ दूर हो जाती हैं। विशेष तौर पर लकवाग्रस्त रोगियों को यहाँ माताजी के दर्शन हेतु लाया जाता है तथा माताजी की असीम कृपा से लकवा रोग पूर्णतः ठीक हो जाता है। रोग की गंभीरता के अनुसार रोगी को समय बताया जाता है कि कितने दिन यहाँ रूकना होगा। रूकने की व्यवस्था मंदिर प्रांगण में ही होती है। रोग ठीक हो जाने पर भक्त ठीक होने वाले अंग के बराबर नाप का सोने या चाँदी का अंग बनवाकर या फिर अपनी क्षमता के अनुसार दान करते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ जीवित मुर्गे चढ़ाने की भी परम्परा है। भक्त अपनी इच्छापूर्ति हो जाने पर जीवित मुर्गे यहाँ छोड़कर चले जाते हैं। ऐसे बहुत से मुर्गों को मंदिर प्रांगण में घूमते हुए देखा जा सकता है। मंदिर प्रांगण शांत व सुंदर है। काफी दूर-दूर से भक्त यहाँ माताजी के दर्शन हेतु आते हैं।
यहाँ मनाए जाने वाले मुख्य त्यौंहार दीपावली तथा नवरात्र हैं। इस समय यहाँ विशेष सजावट होती है। पूरे मंदिर को फूलों तथा रोशनी से सजाया जाता है। देवी का सुंदर श्रृंगार किया जाता है। महाआरती होती है तथा भक्तगण माताजी की आरती व दर्शन का लाभ लेते हैं।
यह मंदिर पहाड़ियों से घिरे प्राकृतिक स्थान पर स्थापित है। मंदिर के पास एक बड़ा तालाब भी स्थित है, जोकि बहुत पवित्र माना जाता है। बड़ी संख्या में लोग इस तालाब में स्नान करते हैं। यहाँ लोग तालाब की मछलियों को दाना भी खिलाते हैं। तालाब में जलीय पक्षियों की कई प्रजातियों को देखा जा सकता है। मंदिर के ठीक पास तालाब की उपस्थिति होने से नैनों को शीतलता प्रदान करने वाला सुरम्य वातावरण बन जाता है। तालाब के जल को छूकर आने वाली शीतल हवा मन को सुकून प्रदान करती है। परन्तु कुछ लोग अपनी मान्यतावश या अज्ञानतावश तालाब में पूजन-सामग्री या कचरा डाल देते हैं, जो कि तालाब में जल प्रदूषण का कारण बनता है। तालाब के जल की स्वच्छता तथा पवित्रता को बनाए रखने के लिए ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। यहाँ एक वटवृक्ष भी स्थित है, जिसपर लोग इच्छापूर्ति हेतु रक्षासूत्र, मोली का धागा तथा पुरानी श्रृंगार वस्तुएं जैसे चूड़ियाँ आदि बाँधते हैं।
माताजी के मंदिर के पास ही एक हनुमान जी का मंदिर भी स्थित है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु हनुमान जी के दर्शन का लाभ भी पाते हैं। मंदिर के पास ही बाजार भी है, जहाँ सभी वस्तुओं से संबंधित दुकानें स्थित हैं। यहाँ आस-पास के क्षेत्र में कई धर्मशालाएँ तथा होटल भी उपलब्ध हैं, जिससे बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को समस्या नहीं होती।
मुझे कई बार सपरिवार आवरी माताजी के दर्शन का सौभाग्य मिला है। यदि आपकी धार्मिक यात्रा में आस्था है तो यकीन मानिए यहाँ आकर आपको असीम सुख व शांति की प्राप्ति होगी।
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