गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ैया (भाग-1) - Yatrafiber

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शनिवार, 30 जनवरी 2021

गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ैया (भाग-1)

 चित्तौड़गढ़ का किला

हैलो दोस्तों,

Yatrafiber के आज के ब्लॉग में मैं राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित गढ़ों के सिरमौर चित्तौड़गढ़ के किले के बारे में बताना चाहूँगी। मेवाड़ की शान कहलाने वाला यह चित्तौड़ का किला भारत के सबसे विशाल किलों में से एक है। कई जौहरों के रंग में रंगी यह वीरता व पराक्रम की भूमि मेवाड़ की राजधानी रही है। कुंभश्याम मंदिर, मीरा मंदिर, कालिका मंदिर, कुंभा महल, पद्मिनी महल, विजय स्तंभ, कीर्ति स्तंभ, गौमुख कुंड जैसे बहुत से मंदिर और ऐतिहासिक स्मारक व भवन इस किले को सुशोभित करते हैं। अनूठी विशेषताओं युक्त यह किला 21 जून, 2013 को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया जा चुका है।

चित्तौड़गढ़ रेलवे स्टेशन से चित्तौड़ के किले की दूरी लगभग 7 किमी है, जबकि चित्तौड़ के बस स्टैंड से यह महज 4.5 किमी दूर स्थित है। रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड से निजी वाहन करके या ऑटोरिक्शा द्वारा आसानी से चित्तौड़ के किले तक पहुँचा जा सकता है। निजी वाहन नहीं होने की स्थिति में ऑटोरिक्शा सबसे बेहतर विकल्प है। क्योंकि ऑटोरिक्शा में बस स्टैंड से किले तक लाने-लेजाने व पूरा किला घूमाने का किराया मात्र 300-400 रुपये लगता है। चित्तौड़ का किला घूमने के लिए सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च तक का है, इसके अलावा मानसून में भी यहाँ काफी पर्यटक आते हैं।

इतिहासकारों के अनुसार इस किले का निर्माण 7वीं शताब्दी में चित्रांगद मौर्य ने करवाया था तथा उन्हीं के नाम पर इसका नाम चित्रकूट पड़ा, जो कि बाद में चित्तौड़गढ़ में परिवर्तित हो गया। ऐसा भी कहा जाता है कि इस किले का निर्माण महाभारत काल में पांडव भीम ने किया था। किले में भीमताल व भीमगोड़ी की उपस्थिति को इसका प्रमाण माना जाता है।

मछली के आकार वाला यह किला एक पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है तथा लगभग 700 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है। पहाड़ी ढ़लान तथा खड़ी चट्टानों जैसी प्राकृतिक सुरक्षा के अतिरिक्त किले में प्रवेश के लिए 7 द्वारों को पार करना पड़ता है, जो कि सुरक्षा की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हैं। मजबूत होने के साथ-साथ इनकी ऊँचाई भी काफी अधिक है। मेवाड़ के शासक सूर्यवंशी थे तथा सूर्यदेव के रथ में 7 घोड़े जुते हुए होते हैं। ऐसा माना जाता है कि उनके प्रतीक के रूप में ही ये 7 द्वार बनवाए गए हैं।

ये 7 द्वार निम्न प्रकार हैं -

(1) पाडन पोल - यह सबसे पहला दरवाजा है। कहा जाता है कि एक बार भीषण युद्ध होने पर इतना अधिक खून बहा था कि खून के साथ एक पाडा (भैंस का बच्चा) बहकर यहाँ तक पहुँच गया था। इसी कारण इसका नाम पाडन पोल पड़ा।

(2) भैरो पोल - यह दूसरे नम्बर का दरवाजा है। इसके पास भैरव देव का मंदिर स्थित होने के कारण इसका नाम भैरो पोल रखा गया।

(3) हनुमान पोल - इस तीसरे दरवाजे के पास हनुमान जी का मंदिर स्थित है। इसी कारण इसका नाम हनुमान पोल पड़ा।

(4) गणेश पोल - चौथे दरवाजे के पास गणेश जी का मंदिर स्थित होने के कारण इसे गणेश पोल के नाम से जाना जाता है।

(5) जोड़ला पोल - यह पाँचवा दरवाजा है तथा छठे दरवाजे से मात्र कुछ ही दूरी पर स्थित होने के कारण इसे जोड़ला पोल के नाम से जाना जाता है।

(6) लक्ष्मण पोल - छठे दरवाजे के पास लक्ष्मण जी का मंदिर स्थित है। इसी कारण इसका नाम लक्ष्मण पोल पड़ा।

(7) राम पोल - सातवें दरवाजे के पास सूर्यवंशी राजाओं के ईष्टदेव भगवान श्रीराम का मंदिर स्थित होने के कारण इसका नाम राम पोल पड़ा।

किले के अंदर टिकटघर बना हुआ है। किले के अंदर स्थित विजय स्तंभ, पद्मिनी महल व संग्रहालय आदि में प्रवेश के लिए टिकट लेना पड़ता है, बाकी किला निःशुल्क देखा जा सकता है। किला सुबह 9.30 से शाम 5 बजे तक खुला रहता है। कोविड-19 महामारी के कारण वर्तमान में टिकट ऑनलाईन बुक कराना पड़ता है। महामारी से पूर्व टिकट ऑफलाईन भी ली जा सकती थी। टिकटघर के विपरीत दिशा में दीवार के पास खड़े होकर चित्तौड़ शहर का शानदार नजारा देखा जा सकता है। बहुत से पर्यटक यहाँ खड़े होकर दूर तक फैले हुए चित्तौड़ शहर के साथ सेल्फी लेना पसंद करते हैं।

यहाँ से थोड़ा आगे जाकर दाँहिनी ओर कुम्भा महल स्थित है। महाराणा कुम्भा ने इसकी मरम्मत करवाई थी, इसी कारण इसे कुम्भा महल के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यह महल कुछ खण्डहर सा हो गया है, परन्तु फिर भी इसकी भव्य ईमारत स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करती है। इस विशाल महल में कई छोटे-बड़े कमरे, तहखाने, बरामदे, चौक व अन्य संरचनाएँ बनी हुई हैं।




महल से एक तरफ किले का तथा दूसरी तरफ चित्तौड़ शहर का नजारा दिखाई देता है। कहा जाता है कि कुम्भा महल के तहखाने से गौमुख कुंड तक एक सुरंग बनी हुई है, जिसमें से होकर महारानी पद्मिनी स्नान व पूजा हेतु जाया करती थीं, परन्तु अब इस सुरंग के दरवाजे दोनों ओर से बंद कर दिए गए हैं। इस महल का प्रवेश द्वार त्रिपोलिया के नाम से जाना जाता है।


कुम्भा महल के विपरीत एक अर्द्धवृत्ताकार बुर्ज बना हुआ है। इसका निर्माण अपूर्ण है तथा इसे दासीपुत्र बनवीर द्वारा चित्तौड़ के किले पर कब्जा करने के बाद अपनी सुरक्षा तथा अस्त्र-शस्त्रों के भंडारण हेतु बनवाया गया था। कहा जाता है कि इसमें हमेशा नौ लाख रुपये भरे रहते थे, इसी कारण इसका नाम नवलखा भंडार पड़ा।

इस नवलखा भंडार के आधार पर कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इसकी विपरीत दिशा में स्थित सूरजपोल चित्तौड़ के किले का मुख्य द्वार है तथा यह महल का पिछला हिस्सा है। क्योंकि मुख्य द्वार पर कोई भी राजा धन का भंडारण नहीं करेगा।

नवलखा भंडार से आगे बनी हुई दीवार का नाम बनवीर की दीवार है। क्योंकि इसका निर्माण दासीपुत्र बनवीर ने राजगद्दी हथियाने के बाद अपनी सुरक्षा हेतु किले को दो भागों में बाँटने हेतु करवाया था। परन्तु महाराणा उदयसिंह द्वारा बनवीर को खदेड़ दिए जाने के कारण इस दीवार का निर्माण पूर्ण नहीं हो सका था।

(और पढ़ें गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ैया (भाग-2) )

चित्तौड़ के किले में श्रीकृष्ण जी को समर्पित कुम्भश्याम मंदिर भी स्थित है। ऐसा माना जाता है कि प्रारम्भ में यहाँ विष्णु जी के अवतार वराह भगवान की मूर्ति स्थापित की हुई थी। परन्तु मुस्लिम आक्रमण के समय वह प्रतिमा खंडित कर दी गई। अतः बाद में यहाँ कुम्भश्याम की प्रतिमा स्थापित की गई।


यह मंदिर नागर शैली में बना हुआ है। मंदिर का शिखर पिरामिड आकार का है। मंदिर के शिखर, गर्भगृह, आंतरिक व बाह्य दीवारों पर अत्यंत सुंदर कलाकारी की गई है, जो कि इसे भव्य स्वरूप प्रदान करती है। कुम्भश्याम मंदिर की अप्रतिम शिल्पकला पर्यटकों को दाँतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर कर देती है। बड़ी ही कुशलता से उकेरी गई सभी कलाकृतियाँ साँचे में ढ़ली हुई सी प्रतीत होती हैं।


मुस्लिम आक्रमण के समय ना केवल चित्तौड़ के किले के अन्य भवनों, बल्कि यहाँ के सभी मंदिरों को भी काफी क्षति पहुँचायी गई थी। इसका अंदाजा आज भी इन मंदिरों की दीवारों पर बनी कलाकृतियों को देखकर लगाया जा सकता है। खूबसूरती से तराशे गए इन मंदिरों की दीवार पर बनी एक भी प्रतिमा अपने वास्तविक स्वरूप में मौजूद नहीं है। सभी का कोई न कोई भाग खंडित है, जो कि आक्रमणकारियों की क्रूर मनोदशा को दर्शाता है।


कुम्भश्याम मंदिर के पास ही श्रीकृष्ण जी की परम भक्त मीरा बाई का मंदिर बना हुआ है। मेवाड़ की बहू मीरा बाई श्रीकृष्ण जी की भक्ति हेतु शाही जीवन त्यागकर संत बन गई थीं। मंदिर में श्रीकृष्ण जी के साथ-साथ मीरा बाई की सुंदर प्रतिमा स्थापित की गई है, जिसके दर्शन से मन को असीम शांति मिलती है।



कहा जाता है कि मीरा बाई इसी मंदिर में श्रीकृष्ण जी की भक्ति में लीन रहती थीं। वे यहीं पद, कविताएँ, भजन आदि रचतीं और गाया करती थीं। इन सबसे चिढ़कर विक्रमादित्य ने इसी मंदिर में उन्हें विष का प्याला भेजा था, जो कि श्रीकृष्ण जी के चमत्कार से अमृत में बदल गया था। मंदिर के सामने मीरा बाई के गुरू रैदास जी को समर्पित छतरी बनी हुई है। इसमें गुरू रैदास जी के पदचिह्न अंकित हैं।

                                                                                                          क्रमशः..................................

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